अगर किसी मां से उसके बच्चे को उसके पैदा होने के सिर्फ आधे घण्टे बाद अलग कर दिया जाए हमेशा के लिए, किसी बच्चे को 7-8 महीने की उम्र में किसी कसाई को दे दिया जाए, आपके बदन की चमड़ी को आपकी अधमरी हालत में खींचा जाए या आपकी रीढ़ में चाकू घोप कर पहले आपको लाचार कर दिया जाए फिर आपका गला धीरे से काटा जाए तो आपको कैसा लगेगा? सुनने में घिनौना और क्रूरतम से क्रूरतम कृत्य से भी क्रूर लगने वाली ये सारी बातें हमारी मीट, मिल्क और एग इंडस्ट्री की वो सच्चाइयां है जिन पर अक्सर बात नहीं की जाती। अभी जब सारा सोशल मीडिया और हिंदुस्तान का एक बड़ा तबका एक गर्भवती हथनी की मौत का शोक मन रहा है जो कि इंसानों के ही कुकृत्य का नतीजा है। इस घटना के ज़िम्मेदार लोगों पर क्रोध करना सही है, मगर जाने अनजाने हम भी ऐसी कई क्रूरताओं के ज़िम्मेदार हैं जो हमारे रोजमर्रा के काम में आने वाली चीज़ों के उत्पादन के चलते यूं जानवरों पर होती है।
आपने बेल्ट का उपयोग किया होगा, जूतों का, चमड़े से बने उत्पादों का, कॉस्मेटक्स का, जानवरों के फर से बने उत्पादों का, दूध से बने उत्पादों का या नकली आईलाशेस का, ये सारी चीज़ें जानवरों पर होने वाली हिंसा के लिए ज़िम्मेदार हैं, अगर आपने किसी पेट स्टोर से कोई कुत्ता या बिल्ली खरीदी है तब भी आपने जानवरों के प्रति क्रूरता करने वालों के खाते में पैसे पहुंचाए हैं। चलिए जानने की कोशिश करते हैं कैसे?
शुरुआत करें अगर गाय या भैंस से जो दुधारू पशु हैं। गाय को तो भारत में एक विशेष स्थान भी प्राप्त है। इनकी अधिकतम आयु होती है बीस साल और ये जी पाती हैं ज़्यादा से ज़्यादा चार-पांच साल। बछड़े स्लॉटर हाउस में भेज दिए जाते हैं 5 से 18 महीने तक के क्योंकि वो दूध नहीं दे सकते, जबकि एक बछड़ा गाय का दूध ही लगभग 12 माह तक पीता है। किसी बच्चे को उसकी मां से दूर करना, उसके हक के दूध पर अपना हक जमाना और उस बच्चे को कटने के लिए भेज देना ये भी तो क्रूरता ही है। गाय की ब्रीडिंग और इनसेमिनेशन की प्रक्रिया भी किसी रेप से कम नहीं जो उसके साथ कई बार होती है। उनके जीवन का अंत भी एकदम निर्मम ही होता है। उन्हें बेहोश करने के लिए बिजली के झटके दिए जाते हैं जिनमें वे कई बार अपना होश नहीं खोती, उनकी रीढ़ में चाकू घोंप कर उन्हे लाचार किया जाता है ताकि वो हिलनेडुलने के काबिल ना रहें फ़िर एक मशीन उन्हे काटती है। कई बार वे होश में होती हैं और उनके शरीर से चमड़ी उधेड़ी जाती है। ये सब लगभग हर साल 300 मिलियन बार हर साल होता है।
हममें से कई लोग चिकन को एक पक्षी नहीं खाना ही समझते होंगे जो प्राकृतिक परिवेश में लगभग आठ साल जी सकते हैं मगर अधिकतर जी पाते हैं सिर्फ 42 दिन। अपने अंडो से निकलते ही जब उन्हे अपनी मां की ज़रूरत होती है वे कन्वेयर बेल्ट पर होते हैं। हर तरह से उपेक्षित। जो कमज़ोर होते हैं वे कूड़े के साथ कुचल दिए जाते हैं जो थोड़े भी ठीकठाक होते हैं उनके साथ भी कोई अच्छा सुलूक नहीं होता। वे सब भेजे जाते हैं फैटनिंग फार्म जहां वो खा पी कर मोटे हो जाएं। इस प्रक्रिया को समझने के लिए मिसाल के तौर पर मान लीजिए एक इंसान के बच्चे को खिला पिलाकर तीन माह में ही इतना मोटा कर देना के उसका वजन एक भैंस जितना हो जाए। ऐसे में उनके हाथ और पांव दोनों इतने कमज़ोर हो जाते हैं के खुद का बोझ भी न उठा पाए। और जब वापिस वो कटने के लिए फैक्ट्री लाए जाते हैं तो उन्हें बेहोश करने के लिए बिजली के झटके या ज़हरीली गैस का उपयोग होता है जो कई बार नाकाफी होती है और फिर उनका गला रेत दिया जाता है। ये हर साल लगभग 62 बिलियन मुर्गियों के साथ होता है।
कुत्ते बिल्लियां किसे पसंद नही होंगे, हमने इनके स्टोर भी बहुत देखे होंगे। इनकी ब्रीडिंग के लिए जो जगहें हैं, मान लीजिए एक तरह की पपी फैक्ट्री, वहां के हालात बहुत ही दयनीय होते हैं। वहां के जानवरों को हमेशा बंद रखा जाता है, उनकी सेहत और सेनिटेशन का कोई खयाल नहीं। उनके खाने पीने की उचित व्यवस्था नहीं। कई बार वो जानवर इन्फेक्शन से भरे होते हैं। वे हर चीज़ से इतने डरे होते हैं की घास देखकर भी डर जाएं क्योंकि उन्हें कभी वो भी देखने नसीब नहीं होती। आप किसी लोकल ब्रीडर को ढूंढिए जिसके काम के प्रति आप संदिग्ध न हों या अपने आसपास के किसी जानवर को एडॉप्ट कर लीजिए। यक़ीन मानिए वो भी आपको उतना ही प्यार देंगे और आप एक पाप से भी शायद बच जाएं।
ऐसी ही संवेदनहीन क्रूरता आपको और भी जानवरों के साथ देखने मिल सकती हैं जैसे घोड़े जिन्हें मीट के लिए मारा जाता है, सूअर, खरगोश, बतख़, मछलियां, फ़र के लिए मारे जाने वाले जानवर, कॉस्मेटक्स इंडस्ट्री में टेस्ट के लिए रखे जाने वाले जानवर, ऊंट, लगभग सारे पालतू जानवर ये झेलते हैं। उनके शरीर से उनकी चमड़ी और पंख नोचे जाते है, उन्हे ज़िंदा काट दिया जाता है, उन्हे सारी उम्र एक पिंजरे में रखा जाता है। और ये सब सिर्फ़ इसलिए के हमारी गैर ज़रूरी ज़रूरतें पूरी हो सके।
पशु उद्योग अकेला लगभग 51% ग्रीन हाउस गैसों के लिए ज़िम्मेदार है। दुनियाभर की गाय लगभग 570 बिलियन मीथेन का उत्सर्जन रोज़ करती हैं। पशु उद्योग में पलने वाले जानवरों के लिए लगभग दुनिया में उत्पादन किए गए अनाज का लगभग 50% उपयोग में लाया जाता है और लगभग दुनिया में रोज़ उपयोग में आने वाले साफ़ पानी का एक तिहाई भाग इनके लिए उपयोग में लाया जाता है। दुनिया का 45% भूभाग पशु उद्योग के द्वारा उपयोग में लाया जाता है। हर साल खत्म होने वाले भाग में से 91% अमेज़न के ख़त्म होने के लिए ज़िम्मेदार पशु उद्योग ही है जो पिछले 40 सालों में लगभग 20% ख़त्म हो चुका है। पशु उद्योग के चलते लगभग हर साल 13 मिलियन हेक्टेयर जंगल नष्ट हो जाते हैं। कई जानवरों के आवास नष्ट होते हैं। दुनिया के लगभग 1 बिलियन लोग खाने और साफ़ पीने के पानी की कोई सही व्यवस्था नहीं है। हर रोज़ लगभग 5000 लोग दूषित पानी की वजह से मर जाते हैं। 2050 तक लगभग 200 मिलियन लोग जलवायु परिवर्तन के चलते बेघर हो सकते हैं। इन सब बातों के लिए ज़िम्मेदार होगा इंसान के द्वारा चलाया जा रहा पशु उद्योग, उसका अपना लालच और पशुओं पर होती क्रूरता।
आपको नहीं लगता, एक जंगली जानवर के लिए जो सोशल मीडिया पर हम अपना दुख जताते हैं, अपनी इंसानियत पर शर्मसार होते हैं, वैसे ही इस बड़े ही सुचारू ढंग से चलने वाले सिस्टेमेटिक कत्लेआम पर भी शर्मसार होना चाहिए। जानवर तो सारे ही एकसे हैं, फर्क तो किसी भी जानवर की ज़िन्दगी में नहीं। किसी हाथी के साथ हुई निर्ममता के लिए दुखी होइए, वो आपका हक है। मगर रोज़ होने वाली क्रूरता के लिए भी कुछ बोलिए, जो न तो पशु उद्योग में पलने वाले जानवरों के हक में है और ना ही उन्हे पालने वाले इंसानों के हक में। किसी एक ,चीज़ पर आवाज़ उठाना और बाकी पर चुप रहना भी तो पाखंड ही हुआ ना?
अगर हमारी ज़िन्दगी के थोड़े बदलावों से कुछ अनाज बच सकता है, साफ़ पानी के उपयोग में कमी आ सकती है, वातावरण पर होने वाले दुष्प्रभाव कम हो सकते हैं तो क्यों न उन्हे किया जाए? पशु उद्योग के उत्पादों के उपयोग में कमी कर के, उनकी जगह दूसरे विकल्पों का उपयोग कर के हम पशुओं पर होने वाली क्रूरता को कम कर सकते हैं। हमारी नैतिकता तो हमें हर वेदना में संवेदना ढूंढने की सलाह देती है। क्या इस क्रूरता पर हमें मौन रहना चाहिए?
क्या इस निर्ममता पर बोलना हमारा कर्तव्य नहीं?