#ALL LIVES MATTER Navseekh Education June 3, 2020

#ALL LIVES MATTER

सोशल मीडिया पर शख्स की वेदना जन संवेदना बन कर फुट पड़ी है। जॉर्ज फ्लॉयड, एक 46 साल का अश्वेत अफ्रीकी-अमेरिकी आदमी, जिसकी मृत्यु मई की 25 को अमेरिका के मिनेपोलिस में हुई जब एक पुलिस कर्मी डेरेक चौविन ने ज़मीन पर पड़े जॉर्ज की गर्दन को लगभग सात मिनट तक दबाए रखा। जिसमें से पांच मिनट तक वो फड़फड़ाते रहे और फ़िर उनकी मृत्यु हो गई। और उसके आख़री शब्द थे
” आई कांट ब्रीद (मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं)”
इस नारे की शुरुआत हुई थी सन 2014 में जब एक ऐसे ही एक अश्वेत अफ्रीकी-अमेरिकी आदमी एरिक गार्नर की मृत्यु एक पुलिसकर्मी डेनियर पेंटालिओ के चोक-होल्ड की वजह से हुई और उसके बावजूद पेंटालिओ पर कोई क्रिमिनल चार्जेस नहीं लगाए गए। और उन्हे नौकरी से बर्खास्त करने में भी पुलिस डिपार्टमेंट को पांच साल लगे। मरते वक़्त एरिक के आख़री शब्द भी वही थे, ” आई कांट ब्रीद “। ऐसी कई मौतें हैं जो ऐसे “संस्थागत नस्लभेद” का नतीजा है। अमेरिकी इतिहास इनसे भरा पड़ा है। इन घटनाओं को विस्तार से जानने के लिए इंटरनेट पर कई स्त्रोत उपलब्ध हैं और सबके अपने अपने पक्ष हैं। कुछ भी हुआ हो, कारण कुछ भी रहा हो, किसी इंसान की ज़िन्दगी कभी इतनी सस्ती नहीं समझी जानी चाहिए।

“ब्लैक लाईव्स मैटर्स” एक विश्वव्यापी आंदोलन जो 2013 को अमेरिका में तब शुरू हुआ जब जॉज ज़िमरमेन जो एक श्वेत था उसे ट्रयोन मार्टिन जो एक अश्वेत किशोर था को शूटिंग में मार देने के जुर्म से बरी कर दिया गया। ये सब एक  सिस्टेमेटिक या संस्थागत नस्लभेद का उदाहरण है और ये आंदोलन इस सब के ख़िलाफ़ विश्वभर में आवाज़ उठता है

सिस्टेमेटिक नस्लभेद भेदभाव का एक ऐसा रूप है जो आसानी से पकड़ा नहीं जाता। इसके लिए कोई अकेले ज़िम्मेदार नहीं होता। ये आपको देखने मिल सकता है सामाजिक और राजनैतिक संगठनों में। इसकी झलक बहुत सी जगहों पर मिलती है, उदाहरण के तौर पर हम इसे संपत्ति, आय, न्याय व्यवस्था, नौकरी, राजनैतिक साख़, शिक्षा, चिकित्सा आदि में देख सकते हैं।

अमेरिकी नस्लभेद की जड़ें चार सौ साल पुरानी है, जिसकी शुरुआत प्रशांत महासागर में उबरे एक जहाज में लाए गए बीस गुलामों से हुई जो अफ्रीका में बंदी बना लिए गए थे। ये तो सिर्फ अमेरिका की बात है, जो हुआ गलत हुआ। इसका पुरजोर विरोध होना ही चाहिए। किसी की निर्मम हत्या पर अगर हमारा मन संवेदनहीन है तो हम इंसान कैसे?

सारी दुनिया का इतिहास भेदभाव से भरा पड़ा है और तो और वर्तमान भी, अब मैं सिर्फ बात करने जा रहा हूं भारत की हमारा महान देश। हम सब बुनियादी तौर पर अच्छे लोग हैं, एक दूसरे का दुख समझने वाले, संवेदना से भरे हुए। इसका प्रमाण आप सोशल मीडिया पर देख सकते हैं। मगर कुछ बातें खटकती हैं। हममें से अधिकतर भेदभाव में थोड़ा तो यकीन रखते हैं, मिसाल के तौर पर जब आप किसी को नाम बताते हैं तो कहीं न कहीं अपनी जाती, वर्ण, संप्रदाय के बारे में जाने अंजाने बता देते हैं या पूछ लेते हैं। हम अक्सर अपने धर्म, संप्रदाय, जाती, क्षेत्र पर गर्व करते हैं और दूसरों को कमतर समझने की भूल। भारत में हर धर्म चाहे वो कोई सा भी हो अलग अलग जातियों में, मतों में बटा है। जैसे क्रिश्चियन में रोमन और कैथोलिक, मुस्लिमों में नट और पठान जैसी जातियां, ऐसा ही विभाजन सिखों में है, जैनों में भी, और हिन्दुओं में भी। जिसके चलते हम एकदुसरे को बुरा समझते हैं भेदभाव करते हैं।

बड़ी बातें करने के बजाए छोटी बातों पर ध्यान दें तो हम बहुत सी ऐसी बातें कर जाते हैं जो बुनियादी तौर पर भेदभाव को बढ़ावा देती है। न्यूज पेपर में आने वाली सामाजिक कार्यक्रमों की न्यूज़, पेपर में आने वाली मेट्रिमोनियल कहीं न कहीं बटे समाज को ही दिखती है। मिसाल के तौर पर,
“तुम लड़की हो क्या करोगी इतना पढ़ के, शादी के बाद घर ही बैठना।”
“कैटेगरी क्या है तुम्हारी ST? फ़िर क्या मेहनत करना है। गवर्नमेंट जॉब पक्की तुम्हारी।”
“लड़का/लड़की अच्छा/अच्छी है, अपनी कास्ट की होती तो सही रहता।”
“अच्छा मराठी/गुजरती/तमिल हो?”
“हम ब्राह्मण/राजपूत/ठाकुर/गुर्जर हैं”
“वो बनिया/मारवाड़ी है, कंजुस ही होगा।”
“ये हिन्दू/मुसलमान है, वो बुरे होते हैं।”
ऐसी कई बातें हम रोज़ सुनते हैं और बड़ी सहजता से इनका उपयोग भी करते हैं। किसी के गुण और चरित्र का निर्धारण कहीं ना कहीं इन बातों से करने की कोशश करते हैं।
अपने को दूसरों से उत्तम और ऊपर दिखने में हम छोटा सा भेदभाव तो के ही देते हैं। हमारे देश में कोई हिन्दू मुसलमानों के हाथों मारा जाता है, कोई मुसलमान किसी भीड़ का शिकार हो जाता है, कोई दलित मूछें रखने के बदले मार दिया जाता है, कोई ब्राह्मण धर्म के नाम कहीं मार दिया जाता है, अपनी जाती-धर्म के नाम पर किस ने वोट न दिया होगा, नारी तो हर जगह हर हाल में पिसती आई है। कई बच्चे भूख से रोज़ मरते हैं, मजदूरों के साथ भी अलग अलग रूप में भेदभाव होता है। जान तो सबकी एक सी, भेदभाव तो किसी के साथ भी हो भेदभाव ही है।

अमेरिकी हालात के हिसाब से ये नारा सही हो सकता है,
“ब्लैक लाइव्स मैटर्स”। मगर “ऑल लाइव्स मैटर्स( सारी ज़िन्दगीयां मायने रखती हैं)” क्या ये बात ज़्यादा सही नहीं लगती? हर ज़िन्दगी की गरिमा का ध्यान रखना, हर ज़िन्दगी के लिए उतना ही भावुक और द्रवित होना, जितनी संवेदना हमें जॉर्ज फ्लॉयड के लिए हुई क्या उतनी ही ही संवेदना हमें सिग्नल पर भीख मांगते या चिलचिलाती धूप में नंगे पांव घूमते किसी बच्चे को देखकर होती है? अपने आसपास के लोगों की , जिनकी मदद हम कर सकते हैं, उनकी मदद को हम कितनी कोशिश करते हैं? किसी दुकान पर काम करते किसी बच्चे है हमने कब जानने की कोशश की थी कि वो स्कूल जाता है या नहीं, उसे क्यों काम करना पड़ रहा है? सिर्फ़ सोशल मीडिया पर दुख दिखाना कहां तक सही है?

THE ARTICLE IS NOT INTENDED TO HURT ANYONE

#References

https://www.google.com/amp/s/api.nationalgeographic.com/distribution/public/amp/news/2003/6/indias-untouchables-face-violence-discrimination
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Violence_against_women_in_India
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Black_Lives_Matter
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Death_of_Eric_Garner#:~:text=Eric%20Garner%20(September%2015%2C%201970,but%20quit%20for%20health%20reasons.
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Institutional_racism
https://en.m.wikipedia.org/wiki/Killing_of_George_Floyd
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